નિત્ય મનન/परिशिष्ट-१
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परिशिष्ट-१
वृक्षनसे मत ले, मन तू वृक्षनसे मत ले ।
काटे वाको क्रोध न करहीं,
सिंचत न करहिं नेह ॥ वृक्षन० ॥
धूप सहत अपने सिर ऊपर,
औरको छाँह करेत ।
जो वाहीको पथर चलावे,
ताहीको फल देत ॥ वृक्षन० ॥
धन्य धन्य ये पर-उपकारी,
वृथा मनुजकी देह ।
सूरदास प्रभु कहँ लगि बरनौं,
हरिजनकी मत ले ॥ वृक्षन० ॥